Rebuttal: Religion

सूरज कहाँ डूबता है?

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3 [1] इस आयत को मुफ़स्सिरीन ने कैसे समझा:
4.2
(5)

 

मुहम्मद क़ासिमुल क़ादरी अल अज़हरी

 

क्या क़ुरआन के मुत़ाबिक़, सूरज पानी के चश्मे में डूबता है?

एक सवाल, जिसे सबसे पहले स़लीबपरस्तों ने उठाया, और आज तक उनके फ़ुज़लाख़ोर इसे कॉपी करते चले रहे हैं. चूंकि ये इनकी पुरानी आ़दत है कि जब भी किसी इस्लामोफोबिक साइट/ब्लॉग पर, इस्लाम के ख़िलाफ़ कोई एतराज़ देखते हैं तो उसे फौरन हिन्दी में ट्रांसलेट करके यहां पब्लिश करते हैं ताकि सीधे-सादे मुसलमान लोग अपने दीने इस्लाम को, क़ुरआन को, और ह़दीसे पाक की बातों को, मश्कूक समझने लगें;

वो आयत, जिसकी बात सूरज की तरह रौशन है, इन नाम-निहाद इन्टलैक्चुअल्स को समझ नहीं आ रही है. अल्लाह (ﷻ) ने क़ुरआन 18:86 में, ‘सय्यिदुना सिकंदर ज़ुल्-क़रनैन (रद़ियल्लाहु अ़न्हु)’ के, मग़रिब की तरफ़ (towards the west) सफ़र के बारे में इर्शाद फ़रमाया:

“حَتّٰۤى اِذَا بَلَغَ مَغْرِبَ الشَّمْسِ وَجَدَهَا تَغْرُبُ فِیْ عَیْنٍ حَمِئَةٍ…. “،

“यहां तक कि जब सूरज डूबने की जगह पहुंचा, उसे एक सियाह कीचड़ के चश्मे में डूबता पाया…..”, [कंज़ुल् ईमान]

इस आयत पर ये एतराज़ होता है कि: “क़ुरआन के मुत़ाबिक़ सूरज कीचड़/पानी के चश्मे में डूबता है.”

पहले इसका मुख़्तस़र और आसान जवाब सुनें:

इस आयत में, कहीं भी ऐसा नहीं कहा गया है कि: “सूरज कीचड़/पानी के चश्मे में डूब रहा था”, या: “कीचड़/पानी के चश्मे में डूबता है”, बल्कि वो मंज़र बताया जा रहा है जो हम सब आज भी समन्दर के किनारे खड़े होकर, सूरज डूबने के वक़्त देखते हैं, कि: “सिकंदर ज़ुल्-क़रनैन ने सूरज को काली कीचड़ के चश्मे में डूबता हुआ पाया”, अब इसमें कौन सी ऐसी अजीब बात है कि जो समझ में नहीं आ रही है इन लोगों के. ख़ुद अगर ये भी किसी समंदर के किनारे जाएं, या पहाड़ के सामने खड़े हों, तो शाम को सूरज डूबने के वक़्त यही नज़र आएगा न, कि जैसे सूरज समंदर के अंदर जा रहा हो, या पहाड़ के अंदर घुस रहा हो;

ये एक ऐसा ह़सीन मंज़र होता है कि इसे देखने के लिए अक्सर लोग साह़िले समंदर पर जाते हैं, और लुत़्फ़ उठाते हैं. मगर इस साफ़-सुथरी बात को कैसे शोरो ग़ोग़ा का ज़रिया बना लिया है लोगों ने, कि शैतान भी इनसे शर्मा जाए;

जब आपने ये मुख़्तस़र और आसान जवाब सुन लिया, तो अब बढ़ते हैं तफ़्स़ीली जवाब की तरफ़:

इस एतराज़ के दो जवाब में:

1. इल्ज़ामी (Offensive)

2. तह़क़ीक़ी (Defensive)

फिर ‘इल्ज़ामी (offensive)‘ जवाब को, हम कई तरह पेश करेंगे:

[1] सनातनियों की किताबों से कुछ मिसालें; [2] यहूदियों की मौजूदा तौरात (ओल्ड टेस्टामेंट की पहली पांच किताबों), और ईसाईयों की न्यू टेस्टामेंट से कुछ मिसालें; [3] आ़म इंग्लिश/हिन्दी लिटरेचर से कुछ मिसालें;

फिर इसके बाद ‘तह़क़ीक़ी (Defensive)‘ जवाब को कई तरह सामने रखेंगे:

[1] इस आयत को मुफ़स्सिरीन ने कैसे समझा; [2] इस आयत को मुह़द्दिसीन ने कैसे समझा; [3] आयत का मतलब अरबी ग्रामर की रौशनी में; [4] आयत का मतलब अ़क़्ल की रौशनी में;

फिर आख़िर में ‘ख़ातिमा’ पेश करेंगे;

आइए अब तस्वीर का दूसरा रुख़ देखते हैं:

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1. इल्ज़ामी जवाब:

[1] सनातनियों की किताबों से कुछ मिसालें:

(1) चांद पानी के अंदर दौड़ लगाता है:

•अथर्ववेद, काण्ड नं. 18, सूक्त नं. 4, मन्त्र नं. 89

“च॒न्द्रमा॑अ॒प्स्वन्तरा सु॑प॒र्णो धा॑वते दि॒वि।”

“सुन्दरपूर्त्ति करनेवाला चन्द्रलोक [अपने] जलों के भीतर, सूर्य के प्रकाश में, दौड़ता रहता है।”

[ट्रांसलेशन: पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी]

यही बात ‘ऋग्वेद, मंडल नं. 1, सूक्त नं. 105, मंत्र नं. 1’, और ‘यजुर्वेद, अध्याय नं. 33, मंत्र नं. 90’, और ‘सामवेद, पूर्वार्चिक, अध्याय नं. 5, खंड नं. 3, मंत्र नं. 9’ में भी आई है.

(2) सूरज, समंदर में से निकलकर उगता है:

•ऋग्वेद, मंडल नं. 7, सूक्त नं. 55, मंत्र नं. 7

“स॒हस्र॑शृङ्गो वृष॒भो यः स॑मु॒द्रादु॒दाच॑रत्।”

“हज़ार किरणों वाले जो कामवर्षक सूर्य, समुद्र से उदय होते हैं.”

[ट्रांसलेशन: पंडित गंगा सहाय शर्मा]

यही मंत्र ‘अथर्ववेद, काण्ड नं. 4, सूक्त नं. 5, मंत्र नं. 1’ पर भी आया है.

(3) चांद और सूरज दोनों, समुद्र तक दौड़ लगाते हैं:

•अथर्ववेद, काण्ड नं. 7, सूक्त नं. 81, मन्त्र नं. 1

“पू॑र्वाप॒रं च॑रतो मा॒ययै॒तौ शिशू॒ क्रीड॑न्तौ॒ परि॑ यातोऽर्ण॒वम्।”

“माया (कौशल) के द्वारा, आगे पीछे चलते हुए दो बालक (सूर्य और चंद्र) क्रीडा करते हुए से, एक दूसरे का पीछा करते हुए समुद्र तक पहुंचते हैं.”

[ट्रांसलेशन: श्रीराम शर्मा आचार्य]

(4) सूरज को सात घोड़े रथ में बैठा कर खींचते हैं:

•ऋग्वेद, मण्डल नं. 1, सूक्त नं. 50, मन्त्र नं. 8

“स॒प्त त्वा॑ ह॒रितो॒ रथे॒ वह॑न्ति देव सूर्य। शो॒चिष्के॑शं विचक्षण॥”

“हे सूर्य! तुम दीप्तिमान एवं सर्वप्रकाशक हो. किरणें ही तुम्हारे केश हैं. हरित नाम के सात घोड़े, तुम्हें रथ में बैठा कर ले चलते हैं.”

[ट्रांसलेशन: पंडित गंगा सहाय शर्मा]

इस सूर्य-रथ की पूरी डिटेल देखने के लिए: ‘श्रीमदभागवत पुराण, स्कन्ध नं. 5, अध्याय नं. 21, श्लोक नं. 12-19’ पढ़ें. वहाँ आपको पता चलेगा कि ये रथ कितनी देर में, कितनी यात्रा करता है.

[2] यहूदियों की मौजूदा तौरात (ओल्ड टेस्टामेंट की पहली पांच किताबें), और ईसाईयों की ‘न्यू टेस्टामेंट’ से कुछ मिसालें:

[2] ओल्ड टेस्टामेंट के मुत़ाबिक़ सूरज रास्ते पर नीचे उतरता है:

Deuteronomy, Chapter No. 11, Verse no. 30

“Are they not on the other side Jordan, by the way where the sun goeth down, in the land of the Canaanites, which dwell in the champaign over against Gilgal, beside the plains of Moreh?”

अब इस किताब के मानने वाले बताएं कि इनके पास: “…..by the way where the sun goeth down….” की क्या तअ्वील है? क्या वाक़ई़ सूरज के साथ ऐसा होता है?

 

(2) न्यू टेस्टामेंट के मुत़ाबिक़ सूरज लिबास, और चांद पैरों के नीचे, और तारे सर का ताज हैं:

Revelation, Chapter No. 12, Verse no. 1-2

“And there appeared a great wonder in heaven; a woman clothed with the sun, and the moon under her feet, and upon her head a crown of twelve stars: And she being with child cried, travailing in birth, and pained to be delivered.”

अब स़लीब-परस्तों से हम सवाल करते हैं कि: “….a woman clothed with the sun, and the moon under her feet, and upon her head a crown of twelve stars….” का क्या मतलब है? क्या ऐसा मुम्किन भी हो सकता है? या ये सिर्फ़ जुनून है?

[3] आ़म इंग्लिश/हिन्दी लिटरेचर से कुछ मिसालें:

(1) इंग्लिश दुनिया का मश्हूर कवि: ‘John Donne (d. 1631 .)‘, जिसे 1621 . से 1631 ई. तक चर्च ऑफ़ इंग्लैंड में ‘सैंट पॉल्स कैथेडरल’ के डीन की हैसियत से भी रखा गया, वो अपनी मश्हूर कविता: ‘The Sun Rising’ की शुरुआत इस तरह करता है:

“Busy old fool, unruly sun,

Why dost thou thus,

Through windows, and through curtains call on us?”

क़ुरआन के इस बुलन्द साहित्यिक अंदाज़ को न समझ पाने वाले, क़ाबिल लोग बताएं कि वो इन लाइन्स को कैसे समझते हैं? इसका क्या मतलब है कि सूरज ये सब हरकतें कैसे दे सकता है जैसा कि कवि कह रहा है?

(2) विलियम शैक्सपियर (d. 1616 .) ने अपनी ‘Sonnet 33’ में सूरज के बारे में लिखा है कि:

“Even so my sun one early morn did shine;

With all-triumphant splendour on my brow.”

अब, क़ुरआन की साहित्यिक ऊंचाई तक न पहुंच पाने वाले लोग, मुझे बताएं कि सूरज ऐसा कैसे हो सकता है जैसा कि शैक्सपियर ने लिखा है?

(3) आधुनिक हिन्दी साहित्य के प्रमुख लेखक, कवि, नाटककार और सामाजिक विचारक: ‘धर्मवीर भारती (d. 1997 .)‘ ने एक उपन्यास लिखा: ‘सूरज का सातवाँ घोड़ा’, जो बहुत मश्हूर है;

अब क़ुरआन की साहित्यिक बोली न समझकर, बात बात पर एतराज़ करने वाले लोग बताएं, इसका क्या मतलब है? क्या अब वो यहां भी यही कहेंगे कि: “धर्मवीर भारती के अनुसार सूरज घोड़ों पर घूमता है?”

(4) हिन्दी के एक प्रमुख लेखक, कवि, व निबन्धकार: ‘रामधारी सिंह दिनकर (d. 1974 ई.)‘ ने एक कविता लिखी, जिसका शीर्षक है: ‘सूरज का ब्याह’, अब जिसे साहित्य की बोली समझ आती है वो तो एक पल में समझ जाएगा कि इसका क्या मतलब है. मगर, क़ुरआन पर ज़ुबान-दराज़ी करने वाले, साहित्य को चौपतिया समझने वाले बताएं कि वो इस कविता के शीर्षक का क्या मतलब लेंगे? या ये शोर मचायेंगे कि: “रामधारी सिंह दिनकर के अनुसार सूरज का विवाह हुआ है.”

2. तह़क़ीक़ी जवाब:

[1] इस आयत को मुफ़स्सिरीन ने कैसे समझा:

इमाम फ़ख़रुद्-दीन राज़ी (d. 606 हि.) ने तो, दुश्मनों के इस शक को जड़ से ही उखाड़ कर फैंक दिया, वो लिखते हैं:

“أَنَّهُ ثَبَتَ بِالدَّلِيلِ أَنَّ الْأَرْضَ كُرَةٌ وَأَنَّ السَّمَاءَ مُحِيطَةٌ بِهَا، وَلَا شَكَّ أَنَّ الشَّمْسَ فِي الْفَلَكِ، وَأَيْضًا قَالَ: وَوَجَدَ عِنْدَها قَوْماً وَمَعْلُومٌ أَنَّ جُلُوسَ قَوْمٍ فِي قُرْبِ الشَّمْسِ غَيْرُ مَوْجُودٍ، وَأَيْضًا الشَّمْسُ أَكْبَرُ مِنَ الْأَرْضِ بِمَرَّاتٍ كَثِيرَةٍ فَكَيْفَ يُعْقَلُ دُخُولُهَا فِي عَيْنٍ مِنْ عُيُونِ الْأَرْضِ، إِذَا ثَبَتَ هَذَا فَنَقُولُ: تَأْوِيلُ قَوْلِهِ: تَغْرُبُ فِي عَيْنٍ حَمِئَةٍ مِنْ وُجُوهٍ. الْأَوَّلُ: أَنَّ ذَا الْقَرْنَيْنِ لَمَّا بَلَغَ مَوْضِعَهَا فِي الْمَغْرِبِ وَلَمْ يَبْقَ بَعْدَهُ شَيْءٌ مِنَ الْعِمَارَاتِ وَجَدَ الشَّمْسَ كَأَنَّهَا تَغْرُبُ فِي عَيْنٍ وَهْدَةٍ مُظْلِمَةٍ وَإِنْ لَمْ تَكُنْ كَذَلِكَ فِي الْحَقِيقَةِ كَمَا أَنَّ رَاكِبَ الْبَحْرِ يَرَى الشَّمْسَ كَأَنَّهَا تَغِيبُ فِي الْبَحْرِ إِذَا لَمْ يَرَ الشَّطَّ وَهِيَ فِي الْحَقِيقَةِ تَغِيبُ وَرَاءَ الْبَحْرِ.

الثَّانِي: أَنَّ لِلْجَانِبِ الْغَرْبِيِّ مِنَ الْأَرْضِ مَسَاكِنَ يُحِيطُ الْبَحْرُ بِهَا فَالنَّاظِرُ إِلَى الشَّمْسِ يَتَخَيَّلُ كَأَنَّهَا تَغِيبُ فِي تِلْكَ الْبِحَارِ، وَلَا شَكَّ أَنَّ الْبِحَارَ الْغَرْبِيَّةَ قَوِيَّةُ السُّخُونَةِ فَهِيَ حَامِيَةٌ وَهِيَ أَيْضًا حَمِئَةٌ لِكَثْرَةِ مَا فِيهَا مِنَ الْحَمْأَةِ السَّوْدَاءِ وَالْمَاءِ فَقَوْلُهُ: تَغْرُبُ فِي عَيْنٍ حَمِئَةٍ إِشَارَةٌ إِلَى أَنَّ الْجَانِبَ الْغَرْبِيَّ مِنَ الْأَرْضِ قَدْ أَحَاطَ بِهِ الْبَحْرُ وَهُوَ مَوْضِعٌ شَدِيدُ السُّخُونَةِ”،

“ये बात दलील से साबित हो चुकी है कि ज़मीन कुरवी (spherical) है, और आसमान इसे घेरे हुए है, और इसमें कोई शक नहीं कि सूरज आसमान में है. और (अल्लाह ने) ये भी फ़रमाया: “और उस (ज़ुल्-क़रनैन) ने सूरज के पास एक क़ौम को पाया”, जब कि ये बात मालूम है कि सूरज के क़रीब किसी भी क़ौम का बैठना नहीं पाया जाता. और ये भी, कि सूरज, ज़मीन से कई गुना बड़ा है, तो ये बात कैसे अ़क़्ल में आ सकती है कि सूरज, ज़मीन के चश्मों में से किसी चश्मे में डूबे?

जब ये साबित हो गया, तो हम कहते हैं कि: अल्लाह का ये फ़रमाना कि: ‘सूरज को काली मिट्टी के चश्मे में डूबता पाया’, इसकी कई तरह से तअ्वील (interpretations) हैं, पहली ये कि:

जब सिकंदर ज़ुल्-क़रनैन, मग़रिब (west) में उसके डूबने की जगह पहुंचे, तो वहाँ उसके बाद कोई भी आबादी बाक़ी न बची, तो उन्हें ऐसा लगा जैसे कि सूरज किसी काले चश्मे या गड्ढे में डूब रहा है. जबकि हक़ीक़त में ऐसा कुछ नहीं है. जैसे कि समंदर का सफ़र करने वाला जब किनारा नहीं देख पाता, तो उसे भी ऐसा लगता है कि सूरज समंदर में ही डूब रहा है, जबकि वो हक़ीक़त में समन्दर के पीछे डूब रहा होता है;

दूसरी ये कि: ज़मीन के मग़रिबी इलाक़ों को समंदर घेरे हुए हैं. तो सूरज को देखने वाला ये ख़्याल करता है कि वो इन समंदरों में ही (डूब कर) ग़ायब हो रहा है. और इसमें कोई शक नहीं है कि मग़रिबी समंदर, ज़्यादा गर्म होते हैं, तो ये ‘ह़ामिया’ भी हुए, और इनमें ज़्यादा काली कीचड़ और पानी होने की वजह से, ये ‘ह़मिअह’ भी हुए. तो अल्लाह का ये फ़रमाना कि: ‘सूरज को काली कीचड़ के चश्मे में डूबता हुआ पाया’, इस बात की तरफ़ इशारा है कि ज़मीन के जिन मग़रिबी इलाक़ों को समंदर ने घेर लिया है, वो सख़्त गर्म जगह हैं.”

[मफ़ातीह़ुल् ग़ैब (तफ़्सीरे कबीर), जिल्द नं. 21, पेज नं. 496, पब्लिकेशन: दारु इह़्याइत् तुरासिल् अ़रबिय्यि (बेरूत), तीसरा एडीशन, 1420 हि.]

2. इमाम क़ुर्त़ुबी (d. 671 हि.) ने इस आयत की तफ़्सीर में लिखा:

“وَهِيَ أَعْظَمُ مِنْ أَنْ تَدْخُلَ فِي عَيْنٍ مِنْ عُيُونِ الْأَرْضِ، بَلْ هِيَ أَكْبَرُ مِنَ الْأَرْضِ أَضْعَافًا مُضَاعَفَةً، بَلِ الْمُرَادُ أَنَّهُ انْتَهَى إِلَى آخِرِ الْعِمَارَةِ مِنْ جِهَةِ الْمَغْرِبِ وَمِنْ جِهَةِ الْمَشْرِقِ، فَوَجَدَهَا فِي رَأْيِ الْعَيْنِ تَغْرُبُ فِي عَيْنٍ حَمِئَةٍ، كَمَا أَنَّا نُشَاهِدُهَا فِي الْأَرْضِ الْمَلْسَاءِ كَأَنَّهَا تَدْخُلُ فِي الْأَرْضِ، وَلِهَذَا قَالَ: ‘وَجَدَها تَطْلُعُ عَلى قَوْمٍ لَمْ نَجْعَلْ لَهُمْ مِنْ دُونِها سِتْراً’، وَلَمْ يُرِدْ أَنَّهَا تَطْلُعُ عَلَيْهِمْ بِأَنْ تُمَاسَّهُمْ وَتُلَاصِقَهُمْ، بَلْ أَرَادَ أَنَّهُمْ أَوَّلُ مَنْ تَطْلُعُ عَلَيْهِمْ”،

“और सूरज तो ज़मीन से कई ज़्यादा गुना बड़ा है, फिर इसके किसी चश्मे में कैसे घुस सकता है? बल्कि इसका मतलब ये है कि ज़ुल्-क़रनैन मग़रिब और मशरिक़ की तरफ़ तमाम आबादी से आगे निकल गए, तो उन्हें देखने में ऐसा लगा जैसे कि सूरज कीचड़ के चश्मे में डूब रहा हो. जैसा कि हम हमवार ज़मीन पर ये देखते हैं जैसे कि सूरज उसी में छुप रहा हो. इसीलिए अल्लाह ने (आगे) कहा है कि: ‘उस (ज़ुल्-क़रनैन) ने सूरज को एक ऐसी क़ौम पर उगता हुआ पाया, जिनके लिए हम ने सूरज से कोई आड़ नहीं बनाई’, तो इसका ये मतलब थोड़ी न हुआ कि सूरज उस क़ौम को छू रहा है, या उनसे चिपक रहा है. बल्कि इसका मतलब ये है कि सूरज उन पर सबसे पहले उगता है.”

[अल्-जामिअ़ लि-अह़्कामिल् क़ुरआन (तफ़्सीरे क़ुर्त़ुबी), जिल्द नं. 11, पेज नं. 50, पब्लिकेशन: दारुल् कुतुबिल् मिस़्रिय्यह (क़ाहिरा), दूसरा एडीशन, 1384 हि./ 1964 ई.]

3. इमाम बैज़ावी (d. 685 हि.) ने इसकी तफ़्सीर में लिखा है कि:

“ولعله بلغ ساحل المحيط فرآها كذلك، إذ لم يكن في مطمح بصره غير الماء، ولذلك قال: ‘وَجَدَها تَغْرُبُ’، ولم يقل: ‘كانت تغرب'”،

“और शायद वो बह़रे मुह़ीत के किनारे पहुंचे, तो उन्होंने ऐसा देखा, क्यूंकि उनकी नज़र के सामने सिवा पानी के कुछ था ही नहीं. इसीलिए अल्लाह ने कहा कि: ‘उस (सिकंदर ज़ुल्-क़रनैन) ने सूरज को डूबता हुआ पाया’, और ये नहीं कहा कि: ‘सूरज डूब रहा था’.”

[अन्वारुत् तंज़ील व असरारुत् तअ्वील (तफ़्सीरे बैज़ावी), जिल्द नं. 3, पेज नं. 291, पब्लिकेशन: दारु इह़्याइत् तुरासिल् अ़रबिय्यि (बेरूत), पहला एडीशन, 1418 हि.]

इमाम बैज़ावी के इस आख़िरी नुक़्त़े पर अगर ग़ौर करें, तो यही बात हम ने भी ऊपर कही है, कि ये नहीं कहा गया है कि सूरज ऐसे ऐसे डूबता है, या डूब रहा था. बल्कि देखने वाले को कैसा महसूस हुआ, उसका ज़िक्र है, बस. अब जब बात इमाम बैज़ावी की है, तो यहां एक अहम बात मज़ीद बताता चलूं:

इस एतराज़ को, एक अ़रब मुतनस़्स़िर (Christian Arab): ‘अ़ब्दुल्लाह अ़ब्दुल् फ़ादी (प्रेसिडेंट ऑफ CIRA)‘ ने जब अपनी ज़हरीली किताब: ‘Is the Qurʾān infallible?’ में लिखा, तो इमाम बैज़ावी का हवाला देकर धोखा देने की कोशिश की है, और इमाम बैज़ावी की मज़्कूरा इ़बारत (abovementioned statement) का बिल्कुल ज़िक्र तक नहीं किया, ताकि कहीं इसकी लाल रुमाल में छुपी हुई मक्कारी, सामने न आ जाए. हमने, इसीलिए इसकी इस नापाक किताब पर, इसी जगह हाशिया (footnote) लगाकर इसकी अ़य्यारी को ज़ाहिर किया है, और बताया है कि इमाम बैज़ावी तो इस बात का रद कर रहे हैं, जिसे ये साबित करना चाह रहा है.

4. इमाम ख़ाज़िन (d. 741 हि.) लिखते हैं:

“يجوز أن يكون معنى في عين حمئة أي عندها عين حمئة، أو في رأي العين، وذلك أنه بلغ موضعا من المغرب لم يبق بعده شيء من العمران فوجد الشمس كأنها تغرب في وهدة مظلمة. كما أن راكب البحر يرى أن الشمس كأنها تغيب في البحر”،

“ये भी मुम्किन है कि: ‘काले कीचड़ के चश्मे में’ से मुराद: ‘उसके पास काली कीचड़ का चश्मा’ हो, या फिर ये मतलब हो कि उनके देखने में ऐसा लगा, और ऐसा इसलिए हुआ क्यूंकि वो मग़रिब के उस इलाक़े में पहुंच चुके थे जहां कोई आबादी बाक़ी न रही, तो उन्हें ऐसा लगा कि सूरज किसी अंधेरे गड्ढे में डूब रहा है. जैसे कि समंदर का सफ़र करने वाले को लगता है कि सूरज समन्दर में छुप रहा है.”

[लुबाबुत् तअ्वील फ़ी मआ़नित् तंज़ील (तफ़्सीरे ख़ाज़िन), जिल्द नं. 3, पेज नं. 176, पब्लिकेशन: दारुल् कुतुबिल् इ़ल्मिय्यह (बेरूत), पहला एडीशन, 1415 हि.]

5. इमाम अबू ह़य्यान अन्दलुसी (d. 745 हि.) ने इस आयत के तह़्त लिखा है कि:

“وَمَعْنَى تَغْرُبُ فِي عَيْنٍ أَيْ فِيمَا تَرَى الْعَيْنُ لَا أَنَّ ذَلِكَ حَقِيقَةٌ كَمَا نُشَاهِدُهَا فِي الْأَرْضِ الْمَلْسَاءِ كَأَنَّهَا تَدْخُلُ فِي الْأَرْضِ، وَيَجُوزُ أَنْ تَكُونَ هَذِهِ الْعَيْنُ مِنَ الْبَحْرِ، وَيَجُوزُ أَنْ تَكُونَ الشَّمْسُ تَغِيبُ وَرَاءَهَا”،

“और कीचड़ के चश्मे में डूबने का मतलब ये है कि देखने में ऐसा लगा, न कि हक़ीक़त में. जैसे कि हम हमवार ज़मीन पर देखते हैं तो लगता है कि सूरज इसके अन्दर दाख़िल हो रहा है. ऐसा भी हो सकता है कि ये चश्मा समंदर का ही हिस्सा हो, और ये भी मुम्किन है कि सूरज इसके पीछे छुप रहा हो.”

[अल्-बह़रुल् मुह़ीत़, जिल्द नं. 7, पेज नं. 221, पब्लिकेशन: दारुल् फ़िक्र (बेरूत), 1420 हि.]

6. इमाम इब्ने कसीर (d. 774 हि.) ने इसकी तफ़्सीर में लिखा कि:

“أَيْ رَأَى الشَّمْسَ فِي مَنْظَرِهِ تَغْرُبُ فِي الْبَحْرِ الْمُحِيطِ، وَهَذَا شَأْنُ كُلِّ مَنِ انْتَهَى إِلَى سَاحِلِهِ يَرَاهَا كَأَنَّهَا تَغْرُبُ فِيهِ”،

“इसका मतलब ये है कि उन्होंने अपनी नज़र में सूरज को, बह़रे मुह़ीत़ में डूबता हुआ पाया. ये तो हर उस शख़्स का हाल होता है जो समंदर के किनारे पर जाता है, जो उसे ऐसा दिखाई देता है जैसे कि सूरज समन्दर में ही डूब रहा हो.”

[तफ़्सीर इब्ने कसीर, जिल्द नं. 5, पेज नं. 172, पब्लिकेशन: दारुल् कुतुबिल् इ़ल्मिय्यह (बेरूत), पहला एडीशन, 1419 हि.]

7. इमाम इब्ने आ़दिल ह़ंबली (d. 775 हि.) लिखते हैं:

“ثبت بالدَّليل أنَّ الأرض كرة، وأنَّ السماء محيطة، وأنَّ الشمس في الفلك الرابع، وكيف يعقل دخولها في عينٍ؟ وأيضاً قال: “وجد عِنْدهَا قوماً”، ومعلومٌ أن جلوس القوم قرب الشَّمسِ غير موجودٍ، وأيضاً فالشمس أكبر من الأرض بمراتٍ كثيرةٍ، فكيف يعقل دخولها في عين من عيون الأرض؟ وإذا ثبت هذا، فنقول: تأويل قوله تعالى: “تَغْرُبُ فِي عَيْنٍ حَمِئَةٍ”، من وجوه:

الأول: أنَّ ذا القرنين لما بلغ موضعاً من المغرب، لم يبق بعدهُ شيءٌ من العماراتِ، وجد الشَّمس كأنَّها تغربُ في عينٍ مظلمةٍ، وإن لم يكن كذلك في الحقيقة، كما أنَّ راكب البحر يرى الشمس كأنَّها تغيبُ في البحر، إذا لم يرَ الشطَّ، وهي في الحقيقة تغيبُ وراء البحر”،

“दलील से साबित हो चुका है कि ज़मीन, कुरवी (spherical) है, और आसमान (इसे) घेरे हुए है, और सूरज चौथे आसमान में है. फिर ये बात कैसे समझ में आ सकती है कि वो एक चश्मे में दाख़िल हो रहा है. और (अल्लाह ने) ये भी फ़रमाया: “और उसके पास एक क़ौम को पाया”, जबकि सूरज के पास किसी क़ौम का बैठना मौजूद नहीं. और ये भी, कि सूरज, ज़मीन से बहुत बड़ा है, तो ये कैसे अ़क़्ल में आ सकता है कि वो ज़मीन के चश्मों में से एक चश्मे में दाख़िल हो रहा है? जब ये साबित हो गया तो हम कहते हैं कि अल्लाह के इस फ़रमान की तअ्वील (interpretation) कई तरह से है;

पहली ये कि: जब ज़ुल्-क़रनैन, मग़रिब के ऐसे इलाक़े में पहुंच गए, जहां कोई इ़मारत न बची, तो उन्हें सूरज ऐसा लगा जैसे कि अंधेरे चश्मे में डूब रहा हो, अगरचे हक़ीक़त में ऐसा नहीं है. जैसे कि समन्दर का सफ़र करने वाला सूरज को देखता है तो ऐसा ही लगता है जैसे कि वो समन्दर में ही डूब रहा है, जब किनारा दिखाई न दे तो. जबकि हक़ीक़त में वो समंदर के पार डूब रहा होता है.”

[अल्-लुबाब फ़ी उ़लूमिल् किताब, जिल्द नं. 12, पेज नं. 557, पब्लिकेशन: दारुल् कुतुबिल् इ़ल्मिय्यह (बेरूत), पहला एडीशन, 1419 हि./1998 ई.]

8. इमाम निज़ामुद्-दीन नैशापुरी (d. 850 हि.) इस आयत की तफ़्सीर में लिखते हैं:

“وأيضا قد وضح أن جرم الشمس أكبر من جرم الأرض بمائة وست وستين مرة تقريبا، فكيف يعقل دخولها في عين من عيون الأرض؟ فتأويل الآية أن الشمس تشاهد هناك أعني في طرف العمارة كأنها تغيب وراء البحر الغربي في الماء كما أن راكب البحر يرى الشمس تغيب في الماء لأنه لا يرى الساحل، ولهذا قال: ‘وَجَدَها تَغْرُبُ’، ولم يخبر أنها تغرب في عين”،

“और ये बात भी साफ़ है कि सूरज, ज़मीन से तक़रीबन 166 गुना बड़ा है, फिर ये बात कैसे समझ में आ सकती है कि सूरज, ज़मीन के चश्मों में से किसी चश्मे में डूब रहा है. तो इस आयत की तअ्वील ये है कि आबादी से अलग, सूरज ऐसा ही दिखाई दे रहा था जैसे कि मग़रिबी समंदर के पीछे, पानी में डूब रहा हो. जैसे कि समंदर का सफ़र करने वाला सूरज को उसी में डूबता हुआ देखता है, क्यूंकि उसे किनारा दिखाई नहीं देता. तो इसीलिए अल्लाह ने फ़रमाया: “उसने, उसे डूबता हुआ पाया”, न कि ये, कि ख़बर दी हो कि वो चश्मे में डूबता है.”

[ग़राइबुल् क़ुरआन व रग़ाइबुल् फ़ुरक़ान, जिल्द नं. 4, पेज नं. 459, पब्लिकेशन: दारुल् कुतुबिल् इ़ल्मिय्यह (बेरूत), पहला एडीशन, 1416 हि.]

9. इमाम मह़ल्ली (d. 864 हि.) लिखते हैं:

“وَغُرُوبهَا فِي الْعَيْن فِي رَأْي الْعَيْن وَإِلَّا فَهِيَ أَعْظَم مِنْ الدُّنْيَا”،

“और सूरज का चश्मे में डूबना, यानी उनके देखने में ऐसा था. वर्ना सूरज तो दुनिया से बड़ा है.”

[तफ़्सीरे जलालैन, पेज नं. 393, पब्लिकेशन: दारुल् ह़दीस (क़ाहिरा), पहला एडीशन]

10. इमाम अबुस् सऊ़द इ़मादी (d. 982 हि.) लिखते हैं:

“ولعله لما بلغ ساحلَ المحيط رآها كذلك إذ ليس في مطمح بصره غيرُ الماء كَما يلوحُ بهِ قولُه تعالى: ‘وَجَدَهَا تَغْرُبُ'”،

“और शायद कि जब वो बह़रे मुह़ीत़ के किनारे पहुंचे, तो उन्हें सूरज ऐसा ही लगा, क्यूंकि उन्हें पानी के अलावा कुछ नज़र ही नहीं आ रहा था. जैसा कि अल्लाह के फ़रमान: ‘उसने, उसे डूबता हुआ पाया’, से ज़ाहिर है.”

[इर्शादुल् अ़क़्लिस् सलीम इला मज़ायल् किताबिल् .kjjM. करीम, जिल्द नं. 5, पेज नं. 242, पब्लिकेशन: दारु इह़्याइत् तुरासिल् अ़रबिय्यि (बेरूत)]

11. इमाम मावर्दी (d. 450 हि.)

11. इमाम मावर्दी (d. 450 हि.) अपनी तफ़्सीर में, इस आयत की, ये तअ्वील (interpretation) ज़िक्र करते हुए लिखते हैं:

“أنه وجدها تغرب وراء العين حتى كأنها تغيب في نفس العين”،

“सिकंदर ज़ुल्-क़रनैन ने सूरज को, पानी के चश्मे के पीछे डूबता हुआ पाया, यहां तक कि ऐसा लगा कि वो चश्मे में ही डूब रहा है.”

[अन्-नुकत वल् उ़यून, जिल्द नं. 3, पेज नं. 319, पब्लिकेशन: दारुल् कुतुबिल् इ़ल्मिय्यह (बेरूत)]

12. इमाम बग़वी (d. 510 हि.)

 

12. इमाम बग़वी (d. 510 हि.) ने इस आयत की तफ़्सीर में, ‘क़ुतैबी’ का क़ौल ज़िक्र करके लिखा है कि:

“يَجُوزُ أَنْ يَكُونَ مَعْنَى قَوْلِهِ: فِي عَيْنٍ حَمِئَةٍ أَيْ عِنْدَهَا عَيْنٌ حَمِئَةٌ، أَوْ فِي رَأْيِ الْعَيْنِ”،

“अल्लाह के क़ौल: ‘काले कीचड़ के चश्मे’ से ये भी मुराद हो सकता है कि: ‘सूरज (डूबने) के क़रीब काले कीचड़ का चश्मा था’, या फिर ये कि: ‘उनके देखने में (ऐसा महसूस हुआ)’.”

[मआ़लिमुत् तंज़ील (तफ़्सीरे बग़वी), जिल्द नं. 3, पेज नं. 213, पब्लिकेशन: दारु इह़्याइत् तुरासिल् अ़रबिय्यि (बेरूत), पहला एडीशन, 1420 हि.]

13. इमाम इब्ने अ़त़िय्यह अन्दलुसी (d. 542 हि.)

13. इमाम इब्ने अ़त़िय्यह अन्दलुसी (d. 542 हि.) ने अपनी तफ़्सीर में लिखा है कि:

“وذهب بعض البغداديين إلى أن فِي بمنزلة عند، كأنها مسامتة من الأرض فيما يرى الرائي لعَيْنٍ حَمِئَةٍ”،

“और कुछ बग़दादी उ़लमा इस तरफ गए हैं कि (इस आयत में जो) ‘फ़ी [ह़र्फ़ {जिसका मतलब होता है: ‘में (in)’}]’ आया है, वो ‘इ़न्द (क़रीब/near)’ के मअ़ना में है, गोया कि सूरज ज़मीन से चिपटा हुआ था, जैसा कि कीचड़ के चश्मे को देखने वाले को दिखाई देता है.”

[अल्-मुह़र्ररुल् वजीज़ फ़ी तफ़्सीरिल् किताबिल् अ़ज़ीज़ (तफ़्सीर इब्ने अ़त़िय्यह), जिल्द नं. 3, पेज नं. 539, पब्लिकेशन: दारुल् कुतुबिल् इ़ल्मिय्यह (बेरूत), पहला एडीशन, 1422 हि.]

14. इमाम बयानुल् ह़क़ नैशापुरी (d. 553 हि. के बाद)

14. इमाम बयानुल् ह़क़ नैशापुरी (d. 553 हि. के बाद) ने अपनी तफ़्सीर में लिखा:

“فإنّ من ركب البحر وجد الشّمس تطلع وتغرب فيه”،

“तो जो कोई भी समंदर का सफ़र करता है, उसे यही महसूस होता है कि सूरज समन्दर से ही निकल रहा है, और डूब रहा है.”

[ईजाज़ुल् बयान अ़न् मआ़निल् क़ुरआन, जिल्द नं. 2, पेज नं. 530, पब्लिकेशन: दारुल् ग़र्बिल् इस्लामी (बेरूत), पहला एडीशन, 1415 हि.]

15. यही इमाम बयानुल् ह़क़ नैशापुरी (d. 553 हि. के बाद)

15. यही इमाम बयानुल् ह़क़ नैशापुरी (d. 553 हि. के बाद) अपनी दूसरी तफ़्सीर में लिखते हैं:

“فإن من ركب البحر وجد الشمس تطلع وتغرب منها رؤية، لا حقيقة”،

“तो जो भी समंदर का सफ़र करेगा, सूरज को समंदर से ही निकलता और डूबता पाएगा. ऐसा सिर्फ़ देखने में होता है, न कि ह़क़ीक़त में.”

[बाहिरुल् बुरहान फ़ी मआ़नि मुश्किलातिल् क़ुरआन, जिल्द नं. 2, पेज नं. 876, पब्लिकेशन: जामिआ़ उम्मुल् क़ुरा (मक्का शरीफ़), 1419 हि./1998 ई.]

16. इमाम इब्ने जौज़ी (d. 597 हि.)

16. इमाम इब्ने जौज़ी (d. 597 हि.) इन वहमी लोगों के बारे में लिखते हैं:

“وربما توهَّم متوهِّم أن هذه الشمس على عِظَم قدْرها تغوص بذاتها في عين ماءٍ، وليس كذلك. فإنها أكبر من الدنيا مرارا، فكيف يسعها عين ماء، وقيل: إِن الشمس بقدر الدنيا مائة وخمسين مَرَّة، وقيل: بقدر الدنيا مائة وعشرين مَرَّة، والقمر بقدر الدنيا ثمانين مرة وإِنما وجدها تغرب في العين كما يرى راكب البحر الذي لا يرى طَرَفه أن الشمس تغيب في الماء، وذلك لأن ذا القرنين انتهى إلى آخر البنيان فوجد عيناً حَمِئة ليس بعدها أحد”،

“हो सकता है कि कोई वहमी ये वहम करे कि सूरज इतना बड़ा होकर भी पानी के चश्मे में कैसे डूब सकता है. जबकि ऐसा नहीं है. वो तो दुनिया से कई गुना बड़ा है, फिर पानी का चश्मा उसे कैसे समा सकता है. और कहा गया है कि सूरज दुनिया से, डेढ़ सौ या एक सौ बीस गुना बड़ा है, और चांद अस्सी गुना;

तो उन्होंने उसे चश्मे में ऐसे ही डूबता पाया जैसे कि समन्दर का सफ़र करने वाला — जिसे किनारा नहीं दिखाई देता — देखता है कि सूरज पानी में छुप रहा है. और ऐसा इसलिए हुआ क्यूंकि ज़ुल्-क़रनैन आख़िरी आबादी क्रॉस कर चुके थे, और वहाँ कीचड़ के चश्मे के सिवा कुछ नहीं पाया.”

[ज़ादुल् मसीर फ़ी इ़ल्मित् तफ़्सीर, जिल्द नं. 3, पेज नं. 106, पब्लिकेशन: दारुल् किताबिल् अ़रबिय्यि (बेरूत), पहला एडीशन, 1422 हि.]

[2] इस आयत को मुह़द्दिसीन ने कैसे समझा:

(1) इमाम इब्ने मुलक़्क़िन (d. 804 हि.) अपनी मश्हूर शरह़े बुख़ारी में लिखते हैं:

“وليس معنى: ‘فِي عَيْنٍ حَمِئَةٍ’، سقوطها فيها، وإنما هو خبر عن الغاية التي بلغها ذو القرنين في مسيره حتى لم يجد وراءها مسلكًا لها فوقها، أو على سمتها، كما يرى غروبها من كان في لجة البحر لا يبصر الشاطئ، كأنها تغرب في البحر وهي في الحقيقة تغيب وراءه”،

“आयते करीमा: ‘काली कीचड़ के चश्मे में’, का मतलब सूरज का उसमें गिरना नहीं है, बल्कि ये तो उस आख़िरी मंज़िल की ख़बर है जहां ज़ुल्-क़रनैन अपने सफ़र में पहुंच चुके थे, यहां तक कि वहाँ कोई रास्ता नहीं पाया, न ऊपर, न उसकी तरफ. जैसे कि वो शख़्स सूरज का डूबना देखता है जो बीच समंदर में हो, और किनारा न दिखे, गोया कि वो समंदर में ही डूब रहा हो. जबकि ह़क़ीक़त में वो उसके पीछे छुप रहा होता है.”

[अत्-तौद़ीह़ लि-शरह़िल् जामिइ़स़् स़ह़ीह़, तह़्ते ह़दीस नं. 4803, जिल्द नं. 23, पेज नं. 157, पब्लिकेशन: दारुन् नवादिर (दमिश्क), पहला एडीशन, 1429 हि./2008 ई.]

(2) इमाम इब्ने ह़जर अ़स्क़लानी (d. 852 हि.) अपनी शरह़े बुख़ारी में लिखते हैं:

“فَإِنَّ الْمُرَادَ بِهَا نِهَايَةُ مُدْرَكِ الْبَصَرِ إِلَيْهَا حَالَ الْغُرُوبِ”،

“इससे मुराद वो इन्तिहाई हिस्सा है, जहां तक, सूरज डूबते वक़्त, नज़र पड़ती है.”

[फ़त्ह़ुल् बारी, जिल्द नं. 8, पेज नं. 542, पब्लिकेशन: दारुल् मअ़्रिफ़ह (बेरूत), 1379 हि.]

(3) इमाम ऐ़नी (d. 855 हि.) अपनी शरह़े बुख़ारी में लिखते हैं:

“وليس معنى: ‘في عين حمئه’، سقوطها فيها، وإنما هو خبر عن الغاية التي بلغها ذو القرنين في مسيره حتى لم يجد وراءها مسلكا لها فوقها أو على سمتها، كما يرى غروبها من كان في لجة البحر لا يبصر الساحل كأنها تغرب في البحر وهي في الحقيقة تغرب وراءها”،

“आयते करीमा: ‘काली कीचड़ के चश्मे में’, का मतलब सूरज का उसमें गिरना नहीं है, बल्कि ये तो उस आख़िरी मंज़िल की ख़बर है जहां ज़ुल्-क़रनैन अपने सफ़र में पहुंच चुके थे, यहां तक कि वहाँ कोई रास्ता नहीं पाया, न ऊपर, न उसकी तरफ. जैसे कि वो शख़्स सूरज का डूबना देखता है जो बीच समंदर में हो, और उसे किनारा न दिखाई दे, गोया कि वो समंदर में ही डूब रहा हो. जबकि ह़क़ीक़त में वो उसके पीछे छुप रहा होता है.”

[उ़म्दतुल् क़ारी शरह़ु स़ह़ीह़िल् बुख़ारी, जिल्द नं. 19, पेज नं. 134, पब्लिकेशन: दारुल् फ़िक्र (बेरूत)]

(4) इमाम अबू बक्र इब्नुल् अ़रबी (d. 543 हि.) लिखते हैं:

“و ذلك مجاز ما رأته العين، وغاية ما أدركه البصر”،

“और ये मजाज़ी तौर पर कहा गया है, जो आँख देखती है. और ये आंख ने जो देखा उसका इन्तिहाई हिस्सा था.”

[अल्-मसालिक फ़ी शरह़ि मुअत़्त़इ मालिक, जिल्द नं. 3, पेज नं. 292, पब्लिकेशन: दारुल् ग़र्बिल् इस्लामी (बेरूत), पहला एडीशन, 1428 हि./2007 ई.]

(5) यही इमाम अबू बक्र इब्नुल् अ़रबी (d. 543 हि.) अपनी दूसरी शरह़े मुअत़्त़ा में, यही बात लिखते हैं:

“و ذلك مجاز ما رأته العين، وغاية ما أدركه البصر”،

“और ये मजाज़ी तौर पर कहा गया है, जो आँख ने देखा. और ये आंख ने जो देखा उसका इन्तिहाई हिस्सा था.”

[अल्-क़बस फ़ी शरह़ि मुअत़्त़इ मालिकिब्नि अनस, पेज नं. 383, पहला एडीशन, 1992 ई.]

(6) इमाम बग़वी (d. 516 हि.) लिखते हैं:

“وليس معنى قوله: ‘تغرب في عين حمئة’، أنها تسقط في تلك العين فتغمرها، وإنما هو خبر عن الغاية التي بلغها ذو القرنين في مسيره حتى لم يجد وراءها مسلكا، فوجد الشمس تتدلى عند غروبها فوق هذه العين، وكذلك يتراءى غروب الشمس لمن كان في البحر، وهو لا يرى الساحل كأنها تغيب في البحر”،

“और अल्लाह के कलाम: ‘काली कीचड़ के चश्मे में’, का मतलब ये नहीं है कि सूरज चश्मे में गिर जाता है, और वो उसे ढांप लेता है. बल्कि ये तो उस आख़िरी मंज़िल की ख़बर है जहां ज़ुल्-क़रनैन अपने सफ़र में पहुंच चुके थे, यहां तक कि वहाँ कोई रास्ता नहीं पाया. तो उन्होंने सूरज को, डूबते वक़्त, उस चश्मे के ऊपर आते पाया. समंदर का सफ़र करने वाले को सूरज ऐसे ही डूबता हुआ दिखाई देता है, जब उसे किनारा न दिखाई दे. गोया कि वो समंदर में ही डूब रहा हो.”

[शरह़ुस् सुन्नह, तह़्ते ह़दीस नं. 4292, जिल्द नं. 15, पेज नं. 96, पब्लिकेशन: अल्-मकतबुल् इस्लामी (दमिश्क), दूसरा एडीशन, 1403 हि./1983 ई.]

(7) इमाम इब्ने कसीर (d. 774 हि.) लिखते हैं:

“والمراد بها البحر في نظره، فإن من كان في البحر أو على ساحله يرى الشمس كأنها تطلع من البحر وتغرب فيه، ولهذا قال: ‘وجدها’، أي: في نظره، ولم يقل: ‘فإذا هي تغرب في عين حمئة'”،

“इससे मुराद वो समंदर है जो उन्हें दिखाई दिया. क्यूंकि जो समंदर के अंदर हो, या किनारे पर, उसे ऐसा ही दिखाई देता है कि सूरज उसी से निकलता, और उसी में डूबता है. इसलिए अल्लाह ने फ़रमाया: ‘उसने सूरज को पाया’, यानी अपनी नज़र में. और ये नहीं फ़रमाया कि: ‘कि तब वो कीचड़ के चश्मे में डूब रहा था’.”

[अल्-बिदायह वन् निहायह, जिल्द नं. 2, पेज नं. 107, पब्लिकेशन: मकतबतुल् मआ़रिफ़ (बेरूत), 1410 हि./1990 ई.]

[3] आयत का मतलब अ़रबी ग्रामर की रौशनी में:

पहले इस आयत में मौजूद, इस पूरे जुमले की तरकीब (grammatical structure) देख लेते हैं कि कौनसा लफ़्ज़ क्या है:

1. वजद (وَجَدَ): ये पास्ट टैन्स में, वाह़िद मुज़क्कर ग़ाइब (Singular, Masculine, Third Person) के लिए आया है. इसका मतलब होगा: ‘उस एक मर्द ने पाया’,

2. हा (ھَا): ये पहला मफ़्ऊ़ल (object) है, जिसका मतलब हुआ: ‘उसे’,

3. तग़्-रुबु (تَغْرُبُ): ये दूसरा मफ़्ऊ़ल (object) है, जिसका मतलब है: ‘डूबता हुआ’,

4. फ़ी (فِىْ): ये ह़र्फ़े जार (preposition) है, जिसका मतलब है: ‘में (in/into)‘,

5. ऐ़निन् ह़मिअतिन् (عَیْنٍ حَمِئَةٍ): ये मजरूर (genitive) है, जिसका मतलब है: ‘काली कीचड़ से भरा हुआ चश्मा’,

अब जब ‘वजद (وَجَدَ)’ के साथ दो मफ़्ऊ़ल (two objects) पाए जा रहे हैं, तो अब ये ‘अफ़्आ़लुल् क़ुलूब (actions of hearts)’ को बतायेगा. यानी दिल में जो एहसास हो, उसे बतायेगा. ये यक़ीन का मअ़्ना भी देगा. मगर इसका हक़ीक़त में उसी तरह पाया जाना ज़रूरी नहीं होता, सिर्फ़ मुम्किन होता है. यानी इस यक़ीन का, वाक़िअ़ के मुत़ाबिक़ होना ज़रूरी नहीं, बल्कि कभी ये वाक़िअ़ के मुख़ालिफ़ भी हो सकता है. सिर्फ़ मुअ़्तक़िद की तरफ़ निस्बत करते हुए इसे यक़ीनी कहा जाता है. जैसा कि तमाम अ़रबी नह़्व (Arabic Syntax) की किताबों में लिखा है;

तो अब ‘वजद (وَجَدَ)’ का सबसे बेहतर मतलब ये होगा कि: “उसे ऐसा महसूस हुआ कि सूरज कीचड़ के चश्मे में डूब रहा है.” और इंग्लिश में भी ‘found’ की जगह ‘Perceived’ तर्जमा सबसे बेहतर है. क्यूंकि ‘वजद (وَجَدَ)’ का मतलब ‘Perception’ भी होता है. जैसा कि William Lane’s Lexicon में भी है.

इमाम राग़िब अस़्फ़हानी (d. 502 हि.) ने लिखा है कि:

“وجود بإحدى الحواس الخمس”،

“पाना: पांचों ज्ञानेन्द्रियों में से किसी एक के द्वारा.”

[अल्-मुफ़रदात फ़ी ग़रीबिल् क़ुरआन, पेज नं. 854, पब्लिकेशन: दारुल् क़लम (दमिश्क), पहला एडीशन, 1412 हि.]

बिल्कुल यही बात विलियम लैन ने भी कही:

Edward William Lane’s Arabic-English Lexicon, Pg. 2924

[4] आयत का मतलब अ़क़्ल की रौशनी में:

एक अ़क़्लमंद शख़्स, जिसके अंदर किताबें समझने की सलाहियत होती है, वो इस आयत को, क़ुरआन की दूसरी आयतों की रौशनी में आसानी से समझ सकता है, किसी तरह की कोई तह़क़ीक़ किए बिना. आइए इसपर कुछ अ़क़्ली दलीलें देते हैं:

(1) जब एक छोटे से क्लास का बच्चा भी ये जानता है कि सूरज, इस ज़मीन से कई गुना बड़ा है. फिर ये कैसे मुम्किन हो सकता है कि सूरज इस ज़मीन पर मौजूद किसी नदी, नाले, समुद्र, चश्मे या तालाब में, अपनी फिजिकल बॉडी के साथ डूब जाए? ऐसी समझदारी तो सिर्फ़ इस्लाम के दुश्मनों में ही पाई जा सकती है.

(2) हिन्दुस्तान के बहुत बड़े इस्लामी विद्वान, आ़ला ह़ज़रत इमाम अह़मद रज़ा ख़ान (d. 1921 ई.) की तह़क़ीक़ के मुत़ाबिक़, सूरज, ज़मीन से तक़रीबन 13 लाख, 13 हज़ार, 256 गुना बड़ा है, जैसा कि इमाम अह़मद रज़ा ने अपनी किताब: ‘मुई़ने मुबीन बहरे दौरे शम्स व सुकूने ज़मीन, पेज नं. 6’ के हाशिये में लिखा है. अब जब इस्लामी विद्वान ख़ुद ये कह रहे हैं कि सूरज, ज़मीन से बहुत बड़ा है, फिर वही विद्वान ये बात कैसे नहीं मानते कि क़ुरआन के मुत़ाबिक़, सूरज एक चश्मे में डूबता है? जबकि एक मुसलमान कभी भी अपने क़ुरआन की बात से ख़िलाफ़, कोई राय पेश नहीं कर सकता. अब ऐसी अक़्ल तो सिर्फ़ इस्लाम के दुश्मनों को ही नसीब!

(3) जब क़ुरआन में कई जगह सूरज और चांद के बारे में ये कहा गया है कि ये सब आसमान में घूम रहे हैं. जैसा कि क़ुरआन 21:33 में, और क़ुरआन 36:40 में आया है. अब ये कैसे मुम्किन हो सकता है कि यही क़ुरआन ये भी कहे कि सूरज, ज़मीन पर मौजूद एक चश्मे के अंदर डूबता है? ऐसी अ़क़्ल तो क़ुरआन के दुश्मनों के पास ही मिलेगी.

(4) एतराज़ करने वाले बताएं कि जब क़ुरआन 6:78 के मुत़ाबिक़ सय्यिदुना इब्राहीम (अ़लैहिस्सलाम) ने सूरज पूजने वालों को, एक अल्लाह की इबादत के लिए कहा, और सूरज के डूबने पर कहा कि ऐसों से मैं बरी हूं. तो उस वक़्त, लोगों ने, सूरज को कहाँ डूबता पाया? आसमान में, या चश्मे में?

(5) जब इन दुश्मनों की जुनून वाली अक़्ल के मुत़ाबिक़, क़ुरआन की ज़ुबान में सूरज चश्मे में डूबता है. तो फिर उगेगा भी उसी जगह से, क्यूंकि चश्मे के अंदर तो उसके लिए कोई रास्ता ही नहीं बचा?

अगर कहें हाँ, तो अपने दिमाग़ का इलाज करें, क्यूंकि क़ुरआन 2:258 ने बता दिया है कि अल्लाह, सूरज को मशरिक़ (east) से उगाता है. साथ ही ये बात बच्चा-बच्चा जानता है;

और अगर कहें कि नहीं, तो फिर सूरज कहाँ जाता है उगने के लिए? चश्मे के अंदर कौन-सा रास्ता उसे मिल गया कहीं जाने के लिए?

(6) पूरे इस्लामी साहित्य की किसी भी मुअ़्तबर किताब में, एक भी इस्लामी विद्वान की लिखी हुई ऐसी लाइन नहीं दिखाई जा सकती कि उसने लिखा हो: “क़ुरआन के हिसाब से सूरज हक़ीक़त में ही चश्मे में डूबता है.”

ख़ातिमा:

इस एतराज़ पर, हमारे जवाबात पढ़कर, हर इन्साफ़-पसंद ये समझ जाएगा कि इस आयत को, दुश्मनों की तरफ़ से बेजा ग़लत बनाकर पेश किया जा रहा है, जबकि आयत का मतलब बिल्कुल साफ़ है. हमने हर ज़ाविए से जवाब देकर, सारे गोशों को घेरने की कोशिश की है. अब भी अगर कोई वही पुरानी रट लगाए, तो लगाता रहे. हठधर्मी का कोई इलाज नहीं होता. इतनी आसान सी बात, जिसे बच्चे भी समझ जाएं, उसपर इतना शोर मचाना ज़रूर किसी अ़क़्ल के अंधे ही की ख़ूबी हो सकती है, किसी समझदार की नहीं. मिस्र के बहुत बड़े आ़लिमे दीन: ‘शैख़ मुह़म्मद ग़ज़ाली (d. 1996 ई.)’ ने, इस आयत पर यही एतराज़ करने वाले को जवाब देते हुए, बड़ी प्यारी बात लिखी, वो कहते हैं:

“فهم من قوله تعالى: ‘وَجَدَهَا تَغْرُبُ فِي عَيْنٍ حَمِئَةٍ’، أن الشمس تغطس فى الماء يومياً، ثم تخرج. ولم يدرك ما يعرفه الأطفال عندنا أن اختفاء قرص الشمس فى الماء إنما هو فى عين الرائى لا فى حقيقة الأمر”،

“अल्लाह के क़ौल: ‘उसने सूरज को कीचड़ के चश्मे में डूबता हुआ पाया’, से ये समझ बैठा कि सूरज रोज़ाना पानी में डूबता है, फिर निकलता है. ये, वो बात नहीं समझ पाया, जो हमारे यहां के बच्चे भी समझ लेते हैं, कि सूरज का पानी में छुपना, ये देखने वाले की नज़र में होता है, न कि हक़ीक़त में.”

[क़ज़ाइफ़ुल् ह़क़, पेज नं. 133-134, पब्लिकेशन: दारुल् क़लम (दमिश्क), दूसरा एडीशन, 1418 हि./1997 ई.]

अब अंदाज़ लगाएं कि ये एतराज़ सिर्फ़ कुछ ही सालों पहले पैदा हुआ. जबकि इसकी, और इसे पेश करने वालों की पैदाइश से सैकड़ों साल पहले ही, इस्लामी विद्वानों ने इसके जवाब लिख दिए थे. अब ऐसे क़ुरआन से कौन टक्कर ले सकता है, जिसकी ताक़त का हाल ये है कि दुश्मन के पैदा होने से पहले ही इसको समझने वाले उ़लमा, इनके वसवसों का इलाज कर देते है, अल्ह़म्दुलिल्लाह (ﷻ)!

ये वो अ़ज़ीम किताब है कि तारीख़ गवाह है, इसके ख़िलाफ़ जितना लिखा या बोला गया, उससे कहीं ज़्यादा ही इसे क़ुबूल किया गया. ऐसी ज़बर्दस्त किताब, जिसके बारे में ख़ुद क़ुरआन 11:01 में कहा गया है:

“كِتٰبٌ اُحْكِمَتْ اٰیٰتُهٗ ثُمَّ فُصِّلَتْ مِنْ لَّدُنْ حَكِیْمٍ خَبِیْرٍ”،

“ये एक किताब है जिसकी आयतें, ह़िकमत भरी हैं. फिर तफ़्स़ील की गयीं, ह़िकमत वाले, ख़बरदार की तरफ़ से.” [कंज़ुल् ईमान]

आख़िर में, हम ऐसे कज-फ़हम लोगों के लिए दुआ़ ही कर सकते हैं कि अल्लाह (ﷻ) इन सब को कुफ़्र के अंधेरे से निकालकर, इस्लाम की रौशनी अ़त़ा फ़रमाए;

आमीन बिजाहि ह़बीबी (ﷺ)

09 ज़िल्-ह़िज्जह, 1444 हि./28 जून, 2023 ई.

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