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कन्या भ्रुण हत्या-संकुचित मानसिकता Kanya Bhrn Hatya

4.2
(5)

By Neer Mohammed

आज कन्या भ्रूण हत्या हो रही है और इस पर काफी कुछ कहा और लिखा जा रहा है। कुछ दिन पूर्व ही हिंदी फिल्मों के कलाकार आमिर खान ने अपने कार्यक्रम सत्यमेव जयते में भी ये मुद्दा उठाया ,जिससे इस पर फिर से चर्चा शुरू हो गयी।

इसी चर्चा के प्रसंग में एक श्लोक “यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता”-(जहां नारियों कि पुजा होती है वहाँ देवता निवास करते है) को बार-बार उद्धृत किया जाता है। इससे ये आभास कराने की कोशिश होती है मानो प्राचीन काल में सब कुछ अच्छा ही था; नारी द्वेष का उबाल बस अचानक ही आ गया है।परंतु मनुस्मृति के इस श्लोक को संदर्भ से विच्छिन्न कर के और उसमे प्रयुक्त शब्द “पूजन” अथवा “पुजा “ का मनमाना अर्थ करके ये सारा कार्य किया जाता है।हम अपने आने वाले लेखो में इस श्लोक पर विस्तार से चर्चा करेंगे।

पहले कभी वैदिक संस्कार चालीस माने जाते थे, परंतु अब सोलह संस्कार ही माने जाते हैं। इन संस्कारो में पहला गर्भाधान (गर्भ स्थापित करने का) संस्कार है,तो दूसरा पुंसवन संस्कार।अपने लेख के मुख्य विषय पर आने से पहले में इन संस्कारो के बारें में कुछ तथ्य पाठको के सामने रखना चाहता हु।

वर्णव्यवस्था या मरणव्यवस्था?

इन वैदिक संस्कारो और वर्णव्यवस्था पर संक्षिप्त विश्लेषण पाठको के सामने रख रहा हु।

हिन्दू धर्म में जातिवाद का जहर बच्चे के जन्म के साथ ही अपने जौहर दिखाने लग जाता है।स्वामी दयानंद और आर्यसमाजी विद्वान जन्म से जाति न मानकर कर्म से जाति मानते है-लेकिन उनकी करनी और कथनी में बहुत अंतर है-नीचे हमने मनुस्मृति के तीन श्लोकों को उद्धृत किया है- पहले दो श्लोक ज्यों के त्यों आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट(आर्यसमाज )के द्वारा प्रकाशित स्वामी दयानंद सरस्वती कि संस्कार विधि से है।

(ग)”ब्राह्मणका नाम मंगलसूचक शब्द से युक्त हो, क्षत्रिय का बलसूचक शब्द से युक्त हो, वैश्य का धव्वाचक शब्द से युक्त हो और शूद्र का निंदित शब्द से युक्त हो.ब्राह्मण के नाम के साथ ‘शर्मा’, क्षत्रिय के साथ रक्शायुक्त शब्द ‘वर्मा’ आदि,वैश्य के नाम के साथ पुष्टि शब्द से युक्त ‘गुप्त’ आदि तथा शूद्र के नाम के साथ ‘दास’ शब्द लगाना चाहिए.” [मनु०२/३१-३२]

तीसरे श्लोक का अर्थ  तो इस पुस्तक से नहीं है परंतु इसी बात को संस्कार विधि में इस तरह प्रस्तुत किया गया है-

यहां नामकरण संस्कार में (जन्म लेने के दस दिन बाद)इस तरह नाम रखने चाहिए ये बताया गया है।

मैं इस विवाद में यहां नहीं पड़ना चाहता कि इन संस्कारो से कैसे वीर्य एवं गर्भ के दोष दूर हो सकते हैं।परंतु यदि ऐसा है तो इन को द्विजों(ब्राह्मण,क्षत्रिय और वैश्य) तक ही सीमित रखने का आदेश क्यों है?जो लोग ये कहते नहीं अघाते कि वर्णव्यवस्था जन्म के आधार पर नहीं हुआ करती ,बल्कि वह गुण-कर्म के आधार पर होती है,उनसे  जब ये पूछा जाता है की जन्म से पहले किस आधार पर  इन  संस्कारो को (गर्भाधान और पुंसवन) सिर्फ द्विजों के लिए ही करा जाता है और शूद्रो के लिए नहीं, गर्भ में ही द्विज किस तरह हो गए जब कोई कर्म अभी तक किया ही नहीं,जन्म के दसवे या बारहवे दिन नाम के साथ “शर्मा” किस आधार पर उसे ब्राह्मण मन कर लगाया जाता हे ?बच्चे के नाम के साथ “दास” लगा कर उसें शूद्र किस आधार पर माना जाता हे?तो इन प्रश्नो का कायल करने वाला उत्तर कोई नहीं देता।अब इसे वर्णव्यवस्था कहे या मरणव्यवस्था?

अब मैं लेख के प्रमुख विषय पर आता हु।

पुंसवन संस्कार

पुंसवन संस्कार क्या है,अथर्ववेद में पुंसवन नामक सूक्त है,इसी सूक्त कि व्याख्या करते हुए पद्मभूषण पंडित श्रीपाद दामोदर सातवेलेकर ने अपने अथर्ववेद के भाष्य में पुंसवन का अर्थ करते हुए लिखा है कि-

पुरुष पुत्र उत्पन्न होने का नाम “पुंसवन” और लड़की उत्पन्न होने का नाम “स्त्रैषूय” है।

श्री दामोदर ने अपनी व्याख्या का शीर्षक रखा है- “निश्चय से पुत्र की उत्पत्ति” जो स्वयं  पुंसवन का अर्थ स्पष्ट कर देता है।

पुंसवन की व्याख्या करते हुए स्वामी दयानंद सरस्वती के साथी और बाद में सनातन धर्म के नेता  बनने वाले पंडित भीमसेन शर्मा ने लिखा है कि-

“उत्पत्स्यमानगर्भस्य बेजिकगार्भिकदोषपरिहारार्न्थ पुंरूपत्वसंपत्तये च पुंसवनम् (षोडशसंस्कारविधी, तृतीय संस्करण,1926, पृ. 72-73)

“अर्थात गर्भ से जन्म लेने वाले बच्चे के वीर्य व गर्भ संबंधी दोषों को दूर करने और उस के पुरुष रूप धारण करने के लिए पुंसवन संस्कार है।”

दूसरे शब्दों में ये हर गर्भ के पुरुष रूप धारण करने के लिए किया जाता है-अर्थात हर गर्भ से लड़का पैदा हो;यदि गर्भ में लड़की हो तो वह भी लड़का बन जाए।यह लड़की के भ्रूण के लड़के के रूप परिवर्तन के उद्देशये से किया जाता है।ये लड़की भ्रूण से छुटकारा पाने का प्राचीनकाल का वैदिक तरीका है।यह कितना कारगर है,इस बात को यदि छोड़ भी दें तो भी इसके पीछे कार्यरत मानसिकता तो स्पष्ट दिखाई दे ही जाती है।यदि भ्रूण में ही लड़की का लड़का बन जाए तो फिर लड़की का जन्म ही नहीं होगा।यह इस बात का सूचक है कि आज भी लोग  नहीं चाहते है कि लड़की जन्म उस के यहां हो।

आज वैज्ञानिक साधनों से भ्रूण का लिंग जान कर उसके लड़की होने पर उसकी हत्या कर दी जाती है,यहां इस तरीके से लड़की भ्रूण को खत्म कर उसके स्थान पर लड़के का भ्रूण बना दिया जाता है।बात एक ही है,मानसिकता वही है,मात्र साधनों का अंतर है।

स्वामी दयानंद ने अपनी संस्कार विधि में पांच प्रमाण पुंसवन संस्कार के विषय में दिये हैं,जिनके उन्होने अर्थ नहीं लिखे हैं। परंतु आर्यसमाजी विद्वानो ने जो अर्थ उनके लिखे हैं,वे काफी कुछ स्पष्ट कर देते हैं।नीचे रामगोपाल विद्यालंकार द्वारा किए गए अर्थ जो उन्होने अपनी पुस्तक संस्कार प्रकाश अर्थात महर्षि दयानंद सरस्वती प्रणीत संस्कार विधि ,भाषा टीका सहित पृ. 43-44  पर किए है को उदधृत करूंगा।

               पुमानग्निः पुमानिन्द्र: पुमान्देवो ब्रहस्पति:

               पुमांसं पुत्रं विन्दस्व तं पुमाननु जायतां स्वाहा        मंत्रब्राह्मण 1/4/9

अग्नि,इंद्र,और नाना विधाओं के ज्ञाता विद्वान-ये सब तुझे शक्ति देने वाले हैं। तू शक्तिशाली पुत्र को प्राप्त कर और उसकी संतति भी शक्तिशाली होवे।

                शमीमश्वत्थ आरूढ़स्तत्र पुंसवानं कृतम्

                तद्वै पुत्रस्य वेद्नं तत्स्त्रीष्वाभरामसि            अथर्ववेद 6/11/1

घोड़े के समान वीर्यवान पुरुष जब शांत स्वभाव वाली स्त्री पर आरोहण द्वारा गर्भाधान कर चुका है,तदनंतर पुंसवन किया जाता है; क्योंकि वही पुत्र प्राप्ति का उत्तम उपाय है।हम स्त्रियों में उस संस्कार को करें।

यहां पर हम इस अथर्ववेद के मंत्र का पंडित श्रीपाद दामोदर सातवेलेकर के द्वारा किया गया अर्थ भी उद्धृत करते चले-

( अश्व-त्थ: )अश्वत्थ वृक्ष ( शमी आरूढ़: )शमी वृक्ष पर जहां चढा होता है ( तत्र पुंसवनं कृतं ) वहां पुंसवन किया जाता है। वह ही  (पुत्रस्य वेदनं ) पुत्र प्राप्ति का निश्चय है। ( तत् स्त्रीषु आ भरामसि) वह ही स्त्रियों में हम भर देते हैं।।

श्री दामोदर इस मंत्र पर व्याख्या करते हुए इसकी विधि भी बताते है-

1.शमी वृक्ष पर उगा और बढ़ा हुआ पीपल का वृक्ष होता है,वह पीपल पुत्र रूप गर्भ को धारण कराने वाला होता है।अर्थात इसका औषध बनाकर यदि स्त्री सेवन करेगी तो वह स्त्री पुत्र उत्पन्न करने वाली बनेगी । 2. यह पीपल निश्चय से पुत्र उत्पन्न करने वाला है। 3. इसके सेवन से निश्चय से पुत्र उत्पन्न होता है।4. पुत्र उत्पत्ति के लिए इस पीपल औषध को स्त्रियों को देना चाहिये।

दामोदर जी आगे लिखते है-

शमी वृक्ष पर उगे पीपल वृक्ष का चूर्ण करके मधु के साथ सेवन किया जावे अथवा अन्य दूध आदि द्वारा सेवन किया जावे।इसके सेवन से स्त्री का गर्भाशय पुरुष गर्भ बनाने में समर्थ होता है।जिस स्त्री को लड़कियां ही होती हैं उस स्त्री को यह औषध देने से उसमें, गर्भाशय में परिवर्तन होकर,पुरुष गर्भ उत्पन्न करने की शक्ति आ सकती है।

अब पुंसवन सूक्त के दूसरे मंत्र  पर आते है  ।

रामगोपाल विद्यालंकार  जी अर्थ लिखते है-

               पुंसी वै रेतो भवति तत् स्त्रियामनुषिच्यते

               तद् वै पुत्रस्य वेदनं तत्प्रजापतिरब्रवित्           अथर्ववेद 6/11/2

प्रजापति ईश्वर ने बतलाया है कि पुरुष में वीर्य होता है,उसे स्त्री में सींचा जाता है और उसी से पुत्र की प्राप्ति होती है।।

दामोदर जी अर्थ करते है-

(पुंसी वे रेतः भवति) पुरुष में निश्चय से वीर्य होता है (तत् स्त्रियो अनु षिच्यते )वह स्त्रियों में सींचा जाता है, तद् वै पुत्रस्य वेदनं (वह पुत्र प्राप्ति का साधन है,( तत् प्रजापतिः अब्रवित् ) यह प्रजापति ने कहा है।।

अब इस सूक्त के तीसरे मंत्र का अर्थ देंगे-

रामगोपाल विद्यालंकार जी-

               प्रजापतिरनुमतिः सिनीवाल्यचीक्लृपत्

               स्त्रैषूमन्यत्र दधत्पुमांसमु दधदिह         अथर्ववेद 6/11/3

प्रजापति,अनुमति और  सिनीवाली (संवत्सर,पुर्णिमा और अमावस्या) ये गर्भ की परिणति करते हैं।स्त्री प्रसव के नियमों का अन्यत्र विधान है;यहां पुरुष संबंधी नियमों का विवरण है।

दामोदर जी लिखते है-

(प्रजापतिः अनुमतिः ) प्रजापालक पिता अनुकूल मति धारण करे और ( सिनी-वाली अचीक्लृपत् )गर्भवती स्त्री समर्थ होवे,ऐसा होने पर (पुमांसं उ इह दधत् ) पुत्र गर्भ ही यहां धारण होता है, (अन्यत्र स्त्रैषूयं दधत्) अन्य परिस्थिति में स्त्री गर्भ धारण होता है।।

अथर्ववेद के इस पुंसवन सूक्त के तीसरे मंत्र में जो कुछ कहा गया है,वह बिलकुल स्पष्ट है सिर्फ मंत्र का जो दूसरा भाग है उसके तीन अर्थ हो सकते है-

पहला और दूसरा जैसे इन विद्वानो ने दिया हैं कि ।

1.स्त्री प्रसव के नियमों का अन्यत्र विधान है;यहां पुरुष संबंधी नियमों का विवरण है

इस अर्थ को स्वीकार किया जा सकता था अगर वेदों में कही और स्त्री प्रसव के नियमों का उल्लेख मिलता ,परंतु बड़ी निराशा के साथ कहना पड़ता है की ऐसा कदाचित नहीं है।तो हमें विवश हो कर इस अर्थ को नकारना पड़ता है।हाँ इस अर्थ से भी बात तो यही निकली की पुत्र ही प्राप्त होना चाहिए।

  1. पुत्र गर्भ ही यहां धारण होता है, अन्य परिस्थिति में स्त्री गर्भ धारण होता है।

दामोदर जी ने जो अर्थ लिखा है वह स्वीकृत किया जा सकता है परंतु अर्थ से जो आशय निकल रहा है वे दृष्टिपात करने योग्य है।इस अर्थ के अनुसार निश्चय से पुत्र प्राप्ति की ही  कामना की जाएगी क्योकि पुंसवन तो हर कोई करता है।

  1. तीसरा  ये कि- (स्त्रैषूमन्यत्र दधत्) स्त्री /लड़की को अन्यत्र किसी दूसरे गर्भ में रख ; (पुमांसमु दधदिह)पुरुष /लड़के को इस गर्भ में रख।ये अर्थ भी पुत्र प्राप्ति की मानसिकता को उजागर करता है।

तो ये लड़की का जन्म अपने यहां होने से रोकने और लड़के के अपने यहां पैदा करने के मंत्र हैं।यह लड़की भ्रूण की हत्या का ही पुरातन व वैदिक संस्करण है ।पुंसवन नामक संस्कार का विधान करने वाले वेद और हिंदू धर्म ग्रंथो में स्त्रीसवन/ स्त्रैषूय नामक संस्कार नहीं हैं।

लड़की का जन्म देने की वैसे वेदों में औरत को आज्ञा भी नहीं है।वहां पुत्र ,वे भी दस ,पैदा करने का ही आदेश है।ऋग्वेद में कहा गया है-

                         इमां तवमिन्द्र मीढ्वः सुपुत्रां सुभगां कर्णु ।

              दशास्यां पुत्राना धेहि पतिमेकादशं कर्धि ||      -ऋग्वेद 10/85/45

इसका अर्थ करते हुए स्वामी दयानंद लिखते हैं: है मीढ्वः इंद्र=वीर्य सींचने में समर्थ  ऐश्वर्ययुक्त पुरुष! तू इस विवाहिता स्त्री या विधवा स्त्रियों को श्रेष्ठ पुत्र और सौभाग्य युक्त कर।इस विवाहित स्त्री से दस पुत्र उत्पन्न कर और ग्यारहवीं स्त्री को मान।

इस से स्पष्ट है की प्राचीन काल से ही लड़की के जन्म को न चाहा गया और न अच्छा समझा गया है।परंतु इस तरह के मंत्रो से न लिंग निर्धारण की प्रक्रिया परिवर्तित हो सकती थी,न लड़की का जन्म लेना रुक सकता है।अतः कर्मों को कोसते हुए लड़की को अपनाना ही पड़ता है।परंतु उसके जन्म लेने के बाद भी कुछ नहीं बदला –

ऐतरेय ब्राह्मण जो की ऋग्वेद का व्याख्यान ग्रंथ है,में हरिश्चंद्रनारद संवाद में नारद कहते है:

              “ कृपणं ह दुहिता “

अर्थात पुत्री कष्टप्रदा,दुखदायिनी होती है।

ऐतरेय ब्राह्मण के इस अंश पर भाष्य करते हुए एक पुराने विद्वान भाष्यकार,सायणाचार्य ने एक प्राचीन श्लोक उद्धृत किया है:

                संभवे स्वजनदुः खकारिका संप्रदानसमयेर्थदारिका

                योवनेपि बहुदोषकारिका दारिका ह्रदयदारिका पितुः

अर्थात जब कन्या उत्पन्न होती है,तब स्वजनों को दुख देती है,जब इसका विवाह करते हैं,तब धन का अपहरण करती है।युवावस्था में यह बहुत सी गलतियां कर बैठती है,इसलिए दारिका अर्थात पिता के ह्रदय को चीरने वाली कही गयी है।

यास्काचार्य अपने निरुक्त में बेटी के विषय में लिखते है-

बेटी को दुहिता इसलिए कहा जाता है कि वह “दुर्हिता” (बुरा करने वाली),और “दुरेहिता” (उससे दूर रहने पर ही भलाई है।वह “दोग्धा”(माता-पिता के धन को चूसने वाली है)।  – (निरुक्त अ.3, ख.4)

इसी पुस्तक के अगले अध्याय में कन्या शब्द कि निरुक्ति देते हुए आचार्य यासक ने एक अर्थ लिखा है-

  “ क्वेयं नेत्व्या”                    ( निरुक्त अ.4, ख.15)

अर्थात कन्या को कन्या कहने का मतलब यह है कि ज्यों ही वह पैदा होती है,त्यों ही यह चिंता उत्पन्न होने लगती है कि इसे किस के गले मढ़ेंगे।

इन उद्धरणों से हिंदू संस्कृति और हिंदू धर्म ग्रंथो कि नारी के जन्म के प्रति कुलषित दृष्टि का पता चलता है।इसी मानसिकता के लोगों की अल्लाह “क़ुरान” में खुले शब्दों में निंदा करते हुए कहते है कि-

और जब उनमें से किसी को बेटी की शुभ सूचना मिलती है तो उसके चहरे पर कलौंस छा जाती है और वह घुटा-घुटा रहता है ।जो शुभ सूचना उसे दी गई वह (उसकी दृष्टि में) ऐसी बुराई की बात हुई जो उसके कारण वह लोगों से छिपता फिरता है कि अपमान सहन करके उसे रहने दे या उसे मिट्टी में दबा दे। देखो, कितना बुरा फ़ैसला है जो वे करते है! (क़ुरान 16/58,59)।

अल्लाह क़ुरान में लड़की और लड़के के भेदभाव को खतम करते हुए कहते है कि-

अल्लाह ही की है आकाशों और धरती की बादशाही। वह जो चाहता है पैदा करता है, जिसे चाहता है लड़कियाँ देता है और जिसे चाहता है लड़के देता है।( क़ुरान-42/49 )

इस आयात में ध्यान देने वाली बात है कि अल्लाह ने लड़कियों का जिक्र लड़को से पहले किया है।इसी आयात पर सय्यिदना वथीलह इब्न असका ने कहा है कि वो औरत भाग्यशालि है जो अपनी पहली संतान के रूप में लड़की को जन्म दे।

हज़रत मुहम्मद (स०) ने फरमाया है कि जो दो लड़कियों को अच्छी तरह पाले-पोशे वो मेरे साथ जन्नत में ऐसे होगा जैसे कि दो उँगलियों के बीच अंतर होता है।

लेख को समाप्त करते हुए कहना चाहूँगा की हमें कन्या भ्रूण हत्या और पुत्री के प्रति इस कुलषित दृष्टि को जड़ से सर्वनाश करने  के लिए इस मानसिकता को नष्ट करना होगा।अंत में यही कहूँगा कि-

किं ग्राहृयमग्राहृयमिति कवयो नात्र मोहिताः ,

               अज्ञस्तु मूढ़मतित्वात्सतृणमभ्यवहारी ।।

ग्राह्य (स्वीकारना)और अग्राह्य(अस्वीकारना) का निर्णय कठिन नहीं है।समझदार व्यक्ति ग्राह्य को ग्रहण करके, अग्राह्य को त्याग देता है;परंतु मूर्ख अपनी बेवकूफी के कारण गाय-गधा सब को बराबर समझता है।

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